वास्तु शास्त्र का इतिहास

by Darshana Bhawsar
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वास्तु शास्त्र का इतिहास

वास्तु शास्त्र प्राचीन काल से चला आ रहा है यह अपनेआप में एक विज्ञान है इस विज्ञान का जन्म और विकास  प्राचीन काल में ही हुआ था इसे उस समय ताड़पत्रों पर लिखा जाता था। और विश्वविद्यालयों व गुरुकुल  के पुस्तकालयों में रखा जाता था। परिणाम स्वरूप  इस विज्ञान का एक बहुत बड़ा हिस्सा चूहों ने व दीमक ने खा लिया और इसलिए यह पूरी तरह से प्राप्त नहीं हो पाया। आज हमें इसका अधूरा ज्ञान ही प्राप्त है वर्तमान में कुछ निजी कम्पनियां अपनी ही संकल्पना करके वास्तुशास्त्र का ब्रांड बना कर वस्तुशास्त्र का व्यापार कर रही है। वैसे तो प्राचीन काल में कई वेद लिखें गए है और प्रचलित भी है और वास्तुशास्त्र उन वेदों का एक हिस्सा मात्र है। आज का वास्तुशास्त्र वस्तु पुरुष के अनुसार उपयोग में लाया जाता है। भारत में इसे वास्तुशास्त्र के नाम से जाना जाता रहा है वहीं जब तिब्बत चीन और दक्षिण कोरिया में इसे अपनाया गया तो इसे फेंग शुई नाम दिया गया।

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  • वास्तुशास्त्र के सिद्धांत और बदलाव:

वस्तु के कुछ आधारभूत स्तम्भ है जो की स्वतः ही स्पष्ट हो जाते है। वास्तुशास्त्र में वास्तु पुरुष का बहुत महत्त्व है आधारभूत स्तम्भों के अनुसार वास्तुशास्त्र में दिशाओं का भी बहुत बड़ा महत्त्व है क्योंकि वास्तुशास्त्र भारत प्राचीनतम विद्या है और इसका सम्बन्ध दिशाओं और उर्जाओं से है। दिशाओं को आधार बना कर आसपास की नकारात्मक उर्जाओं को सकारात्मक उर्जाओं में परिवर्तित किया जा सकता है। ताकि नकरात्मक उर्जा मानव जीवन पर अपना प्रभाव न डालें। वास्तु के अंतर्गत घर, ऑफिस, भूमि की बनावट में कुछ बदलाव करके या कुछ अन्य उपाय जैसे घर के या ऑफिस के  मैंन दरवाजे पर कांच लगाना,  स्वस्तिक बनाना, ॐ लिखना या घर या ऑफिस में फेंग शुई रखना जैसे कछुआ, कुबेर इत्यादि चीजें रखना। जिससे कि निश्चित ही वहाँ की नकारात्मक ऊर्जा बाधित हो और मानव को उन्नति प्राप्त हो।

जिन उर्जाओं को नग्न आँखों से नहीं देखा जा सकता है उन उर्जाओं में परिवर्तन करके उन्हें मानव जीवन को सरल व सहज बनाना ही वास्तुशास्त्र है। इसकी शुरुआत लगभग 600 से 400 इसापूर्व से हुई थी। हमारे पुराण, रामायण व महाभारत में भी वास्तुशास्त्र का वर्णन मिलता है। इस बात पर यकीन करना मुश्किल है पर यह सत्य है कि पुराने समय में बनाने वाले भवन, मंदिर व अन्य दार्शनिक स्थल वस्तु शास्त्र के सिद्धांतो के अनुकूल ही होते थे।

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  • वास्तुशास्त्र में दिशाओं का महत्त्व:

पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण  मूलतः ये चार दिशायें होती है परन्तु वास्तुशास्त्र में कुल दस दिशाओं का वर्णन किया गया है जिसमें आकाश पाताल व चार मूल दिशाओं के मध्य की चार दिशायें ईशान, आग्नेय, नैऋत्य और वायव्य शामिल है जन्हें विदिशा कहाँ गया है। इस तरह आकाश, पाताल चार मूल दिशायें व चार विदिशायें शामिल है

पूर्व दिशा से सूर्योदय होता है इसलिए घर या भवन के निर्माण के समय इस दिशा को खुला रखना चाहिए। जिससे उगते सूर्य की किरणे घर के अंदर प्रवेश करें। यह दिशा वास्तु के अनुकूल होने से परिवार के सभी सदस्य ऊर्जावान रहते है इस दिशा में वस्तु दोष होने से परिवार में बीमारियों का वास रहता है। मानसिक तनाव रहता है इस दिशा के स्वामी इन्द्र को माना जाता है।

धन के देवता कुबेर उत्तर दिशा के द्वारपाल है इसलिए धन, संपत्ति आदि से जुड़ा कमरा और स्थान उत्तर दिशा में होना चाहिए ताकि धन के आगमन को अपनी ओर आकर्षित किया जा सके। आग्नेय दिशा के स्वामी अग्नि देव को माना गया है। आग्नेय दिशा याने पूर्व और दक्षिण के मध्य की दिशा इस दिशा में वस्तु दोष होने पर घर का वातावरण तनावपूर्ण व अशांत रहता है। अग्नि से जुड़े कार्यों के लिए यहाँ दिशा सबसे अच्छी होती है। घरों में रसोई के लिए यह दिशा सबसे बेहतर मानी जाती है। इस दिशा में वास्तु दोष होने पर मानसिक चिंता व परेशनियाँ बनी रहती है।

दक्षिण दिशा के स्वामी यम देवता को माना जाता है इस दिशा को खाली नहीं रखना चाहिए। इस दिशा में वास्तुदोष होने पर मान सम्मान में कमी आती है और रोजी रोटी में भी परेशानी का सामना करना पड़ता है।

नैऋत्य दिशा के स्वामी राक्षस है नैऋत्य दिशा का मतलब दक्षिण पश्चिम के मध्य की दिशा। इस दिशा में वस्तु दोष होने से मानसिक तनाव,  रोग, व्यवहार को दूषित करता है घर बनवाते समय इस दिशा को भारी रखना चाहिए यह दिशा वस्तु मुक्त होने से मनुष्य सेहतमंद व स्वस्थ रहते है।

ईशान दिशा के स्वामी शिव है इस दिशा में पानी का स्थान होता है इसलिए इस दिशा में नल,  कुआँ, पानी की टंकी बनवाने से पानी अधिक मात्रा में प्राप्त होता है। इसलिए दिशा में शौचालय कभी भी नहीं बनवाना चाहिए।

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  • वस्तु की कुछ मूल बातें:

वास्तु की कुछ मूल बातें काफी आत्म-व्याख्यात्मक हैं। उदाहरण के लिए, चूंकि सूर्य पूर्व में उगता है, इसलिए किसी को घर के मुख्य द्वार को पूर्व की ओर रखना चाहिए। ताकि उगते सूरज की किरणें घर में प्रवेश करें। तो, किसी के घर का मुख्य प्रवेश द्वार पूर्व या पश्चिम में हो सकता है। दक्षिण की ओर मुख करके घर का मुख्य द्वार नहीं होना चाहिए। इसके पीछे कारण यह है कि पहले के दिनों में, श्मशान हमेंशा दक्षिण दिशा में स्थित थे। हर कस्बे या शहर के दक्षिण में, एक विशाल श्मशान घाट था जहाँ शवों को जलाया जाता था। तो उस दिशा से आने वाली हवा को घर में आने से रोकने के लिए, मुख्य प्रवेश द्वार को कभी भी दक्षिण की ओर नहीं रखा जाता था। आजकल ऐसा नहीं है।

आज कुछ शहरों में, यदि श्मशान घाट पूर्व या उत्तर में स्थित हैं, तो आपके पास उन दिशाओं का सामना करने वाले घर का मुख्य द्वार नहीं हो सकता है। यदि आप रूस का उदाहरण लेते हैं, तो रूस के लिए सूर्य दक्षिण दिशा में है, इसलिए उस देश में आप पाएंगे कि वहाँ के घरों में मुख्य द्वार दक्षिण की ओर है। ताकि अधिक से अधिक प्रकाश घर में आए। तो रूस में घरों के लिए एक अलग वास्तु है। कैलाश पर्वत भारत के उत्तर-पूर्व की ओर मौजूद है। लोग इसे बहुत शुद्ध और पवित्र मानते थे और एक देवता को उस दिशा से ईशान के रूप में जानते थे। यह मुसलमानों और मक्का की दिशा के लिए समान है। दुनिया भर में, मुसलमान मक्का की दिशा का सामना करते हैं और अपनी दैनिक प्रार्थना करते हैं। भारत में मुसलमान पश्चिम का सामना करते हैं जब वे नमाज़ (पवित्र कुरान का पढ़ना) पढ़ते हैं, जबकि जॉर्डन, लेबनान आदि में मुसलमान पूर्व का सामना करते हैं क्योंकि उनके लिए मक्का उसी दिशा में है। वास्तुशास्त्र में सूर्य और उसकी दिशा पर जोर दिया गया है। इस समझ के अनुसार, ऑस्ट्रेलिया या दक्षिण अमेंरिका के लिए वास्तु का पालन किया जाना सूर्य की दिशा में अंतर के कारण पूरी तरह से अलग होगा। इसलिए वास्तुशास्त्र में इन नियमों और सिद्धांतों को इन पहलुओं को ध्यान में रखते हुए तैयार किया गया है।

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